Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


कदंब के फूल

३)
गंगाप्रसाद गाँव की प्रायमरी पाठशाला के दूसरे मास्टर की जगह के लिए उम्मीदवार थे। साढ़े सत्रह रुपए माहवार की जगह के लिए बिचारे दिनभर दौड़-धूप करते, इससे मिल, उससे मिल, न जाने किसकी-किसकी खुशामद करनी पड़ती थी; फिर भी नौकरी पाने की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। इधर वे कई मास से बेकार बैठे थे। भामा के पास कुछ जेवर थे जो हर माह गिरवी रखे जाते थे और किसी प्रकार काट-कसर करके घर का खर्च चलता था । भामा पैसों को दांत तले दबाकर खर्च करती । सास और पति को खिलाकर स्वयं आधे पेट ही खाकर पानी से ही पेट भरकर उठ जाती। कभी दाल का पानी ही पी लिया करती । कभी शाक उचलकर ही पेट भर लिया करती । रुपये पैसों की तंगी के कारण घर में प्रायः रोज ही इस प्रकार कलह मची रहती है।

जब गंगाप्रसाद जी दिन भर की दौड़-धूप के बाद थके- हारे घर लौटे तब शाम हो रही थी, आंगन में उनकी मां उदास बैठी थीं, बेटे को देखा तो नीची आँख कर ली, कुछ बोली नहीं । गंगाप्रसाद अपनी मां का बड़ा आदर करते थे। उनका बड़ा ख्याल रखते थे। जिस बात से उन्हें जरा भी कष्ट होता वह बात वे कभी न करते थे। मां को उदास देखकर वे मां के पास जाकर बैठ गये; प्यार से मां के गले में बाहें डाल दीं; पूछा-क्यों मां आज उदास क्यों है ? क्या कुछ तबियत खराब है ?”
-नहीं, अच्छी है।"
-"कुछ भी तो हुआ है; माँ तू उदास है ।”

अब मां जी से न रहा गया; फूट-फूट के रोने लगीं; बोलीं-“कुछ नहीं मैं आदमी-औरत में लड़ाई नहीं लगवाना चाहती; बस इतना ही कहती हूँ कि अब मैं इस घर में न रह सकुँगी; मेरे लिए अलग झोपड़ा बनवा दे वहीं पड़ी रहूँगी । जी में आवे तो खरच भी देना नहीं तो मांग के खा लूंगी ।”
–“क्यों मां ! क्या कुछ झगड़ा हुया है ? सच-सच कहना !"

-“आज ही क्या है ? यह तो तीसों दिन की बात है ! तेरी घर वाली ने मोहन से मिठाई मंगवाई; वह दोना भर मिठाई मेरे सामने लाया; मैं ज़रा पूछने गई तो कहती है, हाँ मंगवाती हूँ; खाती हूँ ! अपने आदमी की कमाई खाती हूँ; कुछ तुम्हारे बाप का तो नहीं खाती ? जब मैंने कहा कि तेरा अदमी है तो मेरा भी तो बेटा है, उसकी कमाई में मेरा भी हक़ है तो कहती है कि तुम्हारा हक़ जब था तब था, अब तो सब मेरा है। ज्यादः बोलोगी तो मार के घर से निकाल दूँगी। तो बाबा तेरी औरत है तू ही उसकी मार सह; मैं मांग के पेट भले ही भर लूँ; पर बहू के हाथ की मार न खाऊँगी ।"

गंगाप्रसाद अब न सह सके, बोले- “बहू तुझे मारेगी माँ! मैं ही न उसके हाथ-पैर तोड़ कर डाल दूंगा। कहते हुए वे हाथ की लकड़ी उठाकर बड़े गुस्से से भीतर गये । भामा को डाँटकर पूछा-क्या मंगाया था तुमने मोहन से ?

गंगाप्रसाद के इस प्रश्न के उत्तर में "कदम के फूल थे, भैया !” कहते हुए मोहन ने घर में प्रवेश किया तब तक भामा ने दोना उठाकर गंगप्रसाद के सामने रख दिया था। दोने में आठ, दस पीले-पीले गोल-गोल बेसन के लड्डुओं की तरह कदम्ब के फूलों को देखकर गंगाप्रसाद को हँसो आ गई।
मोहन ने दोने में से एक फूल उठाकर कहा-“कितना सुन्दर है यह फूल, भौजी” !

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